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Wednesday, 29 May 2019

bhrashtacharya

आकाशवाणी में कार्यक्रमों को देने के एवज में मिले पारिश्रमिक में वहां के अधिकारियों द्वारा मांगे जाने वाले हिस्से को ले कर दीया की मां ऐसी नाराज हुईं कि उन्होंने कार्यक्रम देने से तौबा कर ली लेकिन जब उन्हें पता चला कि दीया ने भी आकाशवाणी पर कार्यक्रम देना शुरू कर दिया है तो उन का गुस्सा सांतवें आसमान पर पहुंच गया.

अंकल की कोशिशों से आखिर मुझे आकाशवाणी के कार्यक्रमों में जगह मिल ही गई. एक वार्ता के लिए कांट्रेक्ट लेटर मिलते ही सब से पहले अंकल के पास दौड़ीदौड़ी पहुंची तो मुझे बधाई देने के बाद पुन: अपनी बात दोहराते हुए उन्होंने मुझ से कहा, ‘‘बेटी, तुम्हारे इतना जिद करने पर मैं ने तुम्हारे लिए जुगाड़ तो कर दिया है, लेकिन जरा संभल कर रहना. किसी की भी बातों में मत आना, अपनी रिकार्डिंग के बाद अपना पारिश्रमिक ले कर सीधे घर आ जाना.’’

‘‘अंकल, आप बिलकुल चिंता मत कीजिए. कोई भी मुझे बेवकूफ नहीं बना सकता. मजाल है, जो प्रोग्राम देने के बदले किसी को जरा सा भी कोई कमीशन दूं. मम्मी ही थीं, जो उन लोगों के हाथों बेवकूफ बन कर हर कार्य- क्रम में जाने का कमीशन देती रहीं और फिर एक दिन बुरा मान कर पूरा का पूरा पारिश्रमिक का चेक उस डायरेक्टर के मुंह पर मार आईं. शुरू में ही मना कर देतीं तो इतनी हिम्मत न होती किसी की कि कोई उन से कुछ उलटासीधा कहता.’’

मेरे द्वारा मम्मी का जिक्र करते ही अंकल के चेहरे पर टेंशन साफ झलकने लगा था लेकिन अपने कांट्रेक्ट लेटर को ले कर मैं इतनी उत्साहित थी कि बस उन्हें तसल्ली सी दे कर अपने कमरे में आ कर रिकार्डिंग के लिए तैयारी करने लगी. उस में अभी पूरे 8 दिन बाकी थे, सो ऐसी चिंता की कोई बात नहीं थी. हां, कुछ अंकल की बातों से और कुछ मम्मी के अनुभव से मैं डरी हुई जरूर थी.

दरअसल, मेरी मम्मी भी अपने समय में आकाशवाणी पर प्रोग्राम देती रहती थीं. उस समय वहां का कुछ यह चलन सा बन गया था कि कलाकार प्रोग्राम के बदले अपने पारिश्रमिक का कुछ हिस्सा उस स्टेशन डायरेक्टर के हाथों पर रखे. मम्मी को यह कभी अच्छा नहीं लगा था. उन का कहना था कि अपने टैलेंट के बलबूते हम वहां जाते हैं, किसी भी कार्यक्रम की इतनी तैयारी करते हैं फिर यह सब ‘हिस्सा’ या ‘कमीशन’ आदि क्यों दें भला. इस से तो एक कलाकार की कला का अपमान होता है न. ऐसा लगता है कि जैसे कमीशन दे कर उस के बदले में हमें अपनी कला के प्रदर्शन का मौका मिला है. मम्मी उस चलन को ज्यादा दिन झेल नहीं पाईं.

उन दिनों उन्हें एक कार्यक्रम के 250 रुपए मिलते थे, जिस में से 70 रुपए उन्हें अपना पारिश्रमिक पाने के बदले देने पड़ जाते थे. बात पैसे देने की नहीं थी, लेकिन इस तरह रिश्वत दे कर प्रोग्राम लेना मम्मी को अच्छा नहीं लगता था जबकि वहां पर इस तरह कार्यक्रम में आने वाले सभी को अपनी इच्छा या अनिच्छा से यह सब करना ही पड़ता था.

मम्मी की कितने ही ऐसे लोगों से बात होती थी, जो उस डायरेक्टर की इच्छा के भुक्तभोगी थे. बस, अपनीअपनी सोच है. उन में से कुछ ऐसा भी सोचते थे कि आकाशवाणी जैसी जगह पर उन की आवाज और उन के हुनर को पहचान मिल रही है, फिर इन छोटीछोटी बातों पर क्या सोचना, इस छोटे से अमाउंट को पाने या न पाने से कुछ फर्क थोड़े ही पड़ जाएगा. प्रोग्राम मिल जाए और क्या चाहिए.

पता नहीं मुझे कि उस समय उस डायरेक्टर ने ही यह गंदगी फैला रखी थी या हर कोई ही ऐसा करता था. कहते हैं न कि एक मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है. मम्मी तो बस फिर वहां जाने के नाम से ही चिढ़ गईं. आखिरी बार जब वे अपने कार्यक्रम की रिकार्डिंग से लौटीं तो पारिश्रमिक के लिए उन्हें डायरेक्टर के केबिन में जाना था. चेक देते हुए डायरेक्टर ने उन से कहा, ‘अब अमाउंट कुछ और बढ़ाना होगा मैडम. इधर अब आप लोगों के भी 250 से 350 रुपए हो गए हैं, तो हमारा कमीशन भी तो बढ़ना चाहिए न.’

मम्मी को उस की बात पर इतना गुस्सा आया और खुद को इतना अपमानित महसूस किया कि बस चेक उस के मुंह पर मारती, यह कहते हुए गुस्से में बाहर आ गईं कि लो, यह लो अपना पैसा, न मुझे यह चेक चाहिए और न ही तुम्हारा कार्यक्रम. मैं तो अपनी कहानियां, लेख पत्रपत्रिकाओं में ही भेज कर खुश हूं. सेलेक्ट हो जाते हैं तो घरबैठे ही समय पर पारिश्रमिक आ जाता है.

उस के बाद मम्मी फिर किसी आकाशवाणी या दूरदर्शन केंद्र पर नहीं गईं. मैं उन दिनों यही कोई 10-11 साल की थी. उस वक्त तो ज्यादा कुछ समझ नहीं पाई थी लेकिन जैसेजैसे बड़ी होती गई, बात समझ में आती गई. मम्मी के लिए मेरे मन में बहुत दुख था. मम्मी कितनी अच्छी वक्ता थीं कि बता नहीं सकती. एक तो कुछ उन की जल्दबाजी और दूसरे वहां के ऐसे माहौल के कारण एक प्रतिभा अंदर ही अंदर दब कर रह गई.

कहते हैं न कि एक कलाकार की कला को यदि बाहर निकलने का मौका न मिले तो वह दिल ही दिल में जिस तरह दम तो

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